Friday, June 18, 2010


http://www.inext.co.in/epaper/inextDefault.aspx?pageno=16&editioncode=1&edate=6/18/2010

रोहन अभी साल भर पहले ही लखनऊ आया था. इससे पहले वह दिल्ली के पब्लिकेशन हाउस में काम करता था और कल ही वह लखनऊ छोड़कर बंगलुरू चला गया. वहां से उसे एक बेहद शानदार जॉब ऑफर मिला तो उससे रहा नहीं गया. हमारे आज के यूथ की भागती-दौड़ती जिंदगी में रोज नये रिश्ते, नये दोस्त, नये शहर जुड़ते जा रहे हैं. बार-बार किसी नये शहर से जुड़ना फिर बिछड़ना तो इस पीढ़ी की लाइफ स्टाइल का हिस्सा सा बनता जा रहा है. जब वह लखनऊ में था, तब वह अपने दिल्ली के दोस्तों का मिस करता था. उनके बारे में देर-देर तक ढेर सारी बातें करता था. उन बातों में न जाने कितनी शरारतें शामिल होती थीं. ठहाकों और मुस्कुराहटों को याद करते-करते कभी-कभी उसकी आंखे नम भी हो जाती थीं. उनमें से कुछ फ्रेंड्स टच में थे, कुछ से फोन पर बातें होती थीं, लेकिन कुछ तो छूट ही गये. कोई कभी-कभी चैट पर या ऑर्कुट पर टकरा जाता था लेकिन फिर काम की आपाधापी में बीच-बीच में लंबा अंतराल आ जाता था. अब, जब वह लखनऊ छोड़कर चला गया तो यहां के फ्रेंड्स और जानने वालों को एक बार फिर मिस करने का वक्त आ गया. फिर शायद अच्छी जॉब के लिए वह कहीं और स्विच ओवर करेगा और फिर कुछ और अपनों से बिछड़ने का गम. रफ्तार से चलती आज की जिंदगी में आज के यूथ के लिए यह एक कॉमन प्रॉब्लम बन गई है. बड़ी अपॉरच्युनिटी और भारी-भरकम सैलरी पैकेज के चलते अब उसका एक जगह टिककर काम करना संभव नहीं रहा. ऐसी स्थिति में उसके लिए कई अपनों और अपनों से ज्यादा कई गैरों, जो उससे कहीं ना कहीं जुड़े रहते है को छोड़ने का गम सहना पड़ता है और यकीन मानिये यह दर्द सहना इतना आसान नहीं होता. यह एक मुश्किल कदम होता है, जब हम एक ऐसे माहौल को छोड़कर जा रहे होते हैं, जहां सब कुछ हमारे कंफर्ट जोन में है लाइफ स्मूथ चल रही है. कुछ ऐसे फ्रेंड्स हैं, जो सुख-दुख बंाटने को तैयार रहते हैं. टाइमपास, मस्ती और अपनेपन को छोड़कर फिर एक नई जगह जाना और एक नया सर्किल तैयार करना आज के यूथ के लिए यह एक चैलेंज सा बन गया है. शायद यही कारण है कि दोस्तों की भीड़ सोशल नेटवर्किंग साइट्स और मोबाइल के फोन बुक में तो बढ़ती जा रही है पर कहीं ना कहीं किसी की याद अकेले में टीस मारती है. हर बार नये सिरे से नये शहर से दिल लगाना, वहां के लोगों को अपना बनाना. फिर कुछ दिनों बाद धीरे से उन सबसे हाथ छुड़ाना, पैकिंग करना और निकल पड़ना नये सफर पर. यह आज के यूथ की नियति है. जिसमें वो मुस्कुराते हुए आगे बढ़ रहा है. लेकिन जब कभी बिछड़े हुए दोस्त से किसी मोड़ पर मुलाकात होती है तो ऐसे बांछें खिलती हैं जैसे कोई खजाना मिल गया हो. पिछले दिनों एक टेलीकॉम ऑपरेटर कंपनी के विज्ञापन में कुछ ऐसी ही बात कही गयी कि ढूंढिये अपने दोस्तों को. मन में यह बात जरूर कौंधी दोस्त आखिर खो क्यों रहे हैं. क्या सफलता के पीछे भागते हम कुछ ऐसा तो नहीं खो रहे, जिसकी भरपाई मुश्किल है. पर शायद इसी को तो जिंदगी कहते हैं हम चलते रहते हैं कुछ नये, कुछ बड़े की तलाश में और हमारी पीठ पर लदा यादों का पुलिंदा भी बढ़ता रहता हैं. यादें जो कभी गुदगुदाती हैं, कभी हंसाती हैं और कभी आंखें नम कर जाती हैं. ढेर सारे अपने जो कहीं यादों में बस गये हैं, कभी-कभी उनसे मिलने, पुरानी बातें करने और गिल-शिकवे दूर करने का मन तो करता ही होगा. खैर, अभी ज्यादा देर नहीं हुई है. आइये ढूंढते हैं उन्हें, जो खो गये हैं. मनाते हैं उन्हें, जो हमसे जो रूठे हैं, हो सकता है कुछ को आप भूल गये हों या कुछ आपको भूल गये हों, देखिये कुछ तो आपके शहर में ही होंगे तो कुछ कहीं पीछे छूट गये होंगे, यह भी संभव है कि कुछ आपकी कॉल का वेट कर रहें हों या आप कुछ के कॉल का वेट कर रहे होंगे. चलिए, छोड़िये इन बातों को और आइये कोशिश करते हैं उन सबको यादों की दुनिया से बाहर लाने की, उन्हें दोबारा फिर से अपने साथ जोड़ने की जिनकी याद सताती है. यकीन मानिये आपको अच्छा लगेगा. बहुत अच्छा!

Sunday, May 9, 2010

सिर्फ माँ है और कोई नहीं

रिश्तों की रफूगर वो है एक जादूगर ,
वो ख़ुशियाँ तिनका तिनका कर जोडती है ,
वो गम सूखी लकड़ी के तरह तोडती है,
वो बददूआयें सरे फूक देती है चूल्हे मे,
उसके आचल मे समाया है सूकून का हर साजो-सामान ,
उसकी डाट,उसका प्यार,उसकी लाड ,उसका दुलार ,
न सवाल ,न जबाब ,उसका प्यार बेहिसाब 
सबका गम लेते आयी है वो अपने हिस्से ,
और बेताब रहती है ख़ुशियाँ बाटने को सबको ,
हमारी तोतली बोली सायानी हो गयी ,
घुटनों के बल चलने वाला बच्चा सा मै,
अब भागता हूँ इस बनावटी दुनिया मे ,
अपने पैरों पर..
पर उसके प्यार का बचपना आज भी तोतली बोली बोलता है ,
वो चूमती है मेरा माथा ,
जब मैं निकलता हूँ घर से कहीं जाने को ,
कमर थोड़ी झुक गयी है ,
पर वो आज भी गोद मे उठा लेना चाहती है मुझे 
वो सिर्फ माँ है और कोई नहीं ,
और उसके बिना ये दुनिया कुछ नहीं ....

Monday, April 26, 2010

जितने मे मिलते है सपने ,उतने जेब मे दाम कहाँ


बचपन के यादो मे जीता ,जीवन एक तन्हाई है ,
हरपल ढूढो साथ मगर ,मिलती हरपल रुसवाई है,
अपनों की गफलत मे देखो ,केसे तनहा खड़े है सब ,
एसे लगता जेसे कोंई ,उडती से परछाई है,
है तो सब बाज़ार सजे पर उससे अपना क्या होगा ,
जितने मे मिलते है सपने ,उतने जेब मे दाम कहाँ ,
घर से निकले दफ़नाने को ,सपने यादें जज्बातों को ,
राह मे मिल गया भटका कोंई ,लगे उससे समझाने को ,
लगता था एक दिन आएगा ,जब वो हमको समझेंगे ,
जेसे -जेसे दिन बीते ,वो लगे हमें समझाने को ,
यादों के गटठर अब फोड़ें ,चलो कहें अब दूर चलें ,
एसा ना हो सिर्फ बचे ,एक दिन हमको पछताने को

Friday, January 22, 2010

इन्टनेट की किसी साईट पर पड़ी ये तस्वीर साफ़ बताती है , की हमारे देस मे इच्छाएं पैसे से कहीं ज्यादा बड़ी है और जुगाड़ हमारी अमूल निधि है .....

Thursday, December 31, 2009

midnight poem on new year eve.

फलक पर कुछ सितारों का झुरमुट
जमी पर आतिश की कुछ चिनगारीयां
शाएद ये कोंई खास पल है ..
लोग खुश है , लोग उत्साहित है
उत्सवधर्मिता फजाओं मे घुली सी है
उत्साह एक आने वाले कल का ,
कल के नए सपनो का, नयी इच्छाओं का , वादों का ,खुशिओं का
उस अनदेखे कल का जो हम उम्मीद करते है सुखद हो ..
कल कोंई २६/११ न हो , कल कोंई रेस्सेसन न आये,
कल कोंई अपना न छूटे , कल कोंई दिल न टूटे ,
कल सूरज एक नयी रोशनी लाये ,
कल फजाएं एक नया गीत गुनगुनाएं .
कल हम अपने सपनो के ओर भागें
और मुट्ठी मे भर लायें
कल वो कल आये जब हम खुशिओं को घर लायें ....

Thursday, July 23, 2009

मेरी त्रिवेणी -2


धीरे-धीरे समेट लिये सारे रिश्ते उसने ,जेसे समेट लेता है कोंई ,

आँधी आने से पहले आगन मे सूख रहे कपडे !

बड़ी हसरत से ताकता रहा बादलो को , हाथ मे रेनकोट लेकर .

पर बेवफा इस सावन बरसात ही नहीं हुई !

Wednesday, July 22, 2009

How Long? (With apologies to Gurudeva Tagore)


Where the corrupt and the criminal hold their heads high and roam free
Where the mighty cock a snook at the nation's law
Where rapists, kidnappers, murderers become ministers with ease
And wallowing in sleaze.
Move lordly in their sphere
In shiny limos
With angry red beacons flashing fear
That all can see
The poor citizen, the wretched voters, the common man cowers
In dread of the guilty with awe
Where what is dead and buried and scataphagus is extolled
And sung in song
In such a country, O Lord! to die one must live
For how long