एक नीम का पेड ,गली के उस मोड़ पर
चंद पान की दूकाने और एक चाय का ढाबा
गली के कुछ बदमुज्जना लड़के और हॉस्टल की तारिकाओ का आना जाना
चीजे बदल रही है तेजी से पर रफ्तार आज भी यहाँ धीमी है
लोग पहचानते है सबके चेहरे , कुछ के नाम भी ।
एक छोटा मंदिर भी है उसी नुक्कड़ पर ,
जिसके बरामदे मे कुछ उम्रदराज लोगो का जमघट लगता है
गुजरे ज़माने के बातें ,यादें और बतकही साथ चाय के कुछ गर्म प्याले ,
हर साल जाडे के दिनों मे एक कम हो जाता है उनमे से ,
सबके चेहरे मायूएस होते है आँखों मे दुख और डर के भावः उभरते है
की अब किसकी बारी है , हर कोंई एक दुसरे को हसरत से ताकता है ,
कुछ दिनों तक जमघट नहीं लगता , मंदिर का बरामदा सूना हो जाता
पर फिर एक दिन फिर वही हंसी वही बतकही ,
सच है यही है जिन्दगी हाँ यही है जिन्दगी
1 comment:
सही कहा,यही है ज़िन्दगी...जिसे हम दोनों ही पिछले कुछ सालों से लगातार देख रहे हैं...पर बदमुज्जना शोहदों और हॉस्टल की तारिकायों पर कुछ और लाइंस होती तो मजा आ जाता..
जीवन के अनुभवों की प्रस्तुति का सार्थक प्रयास...बधाई....
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