Tuesday, August 31, 2010

रीत से होने लगी है प्रीत


आइ -नेक्स्ट के मूल लिंक हेतु -http://inext.co.in/epaper/inextDefault.aspx?pageno=16&editioncode=14&edate=8/31/2010#

तिवारी जी 15 साल पहले जब पूर्वी उत्तर प्रदेश के अपने एक छोटे से गांव को छोड़कर राजधानी आये थे, तो सबसे ज्यादा अपनी क्षेत्रीय भाषा और कल्चर को मिस करते थे. कई सालों तक उन्होंने अपने आसपास इसे रिवाइव रखने के लिए बड़ी कोशिश की. लेकिन मामला बना नहीं. वह लोगों से अपनी बोली में बातचीत करते, तो लोग उन्हें देहाती या गंवार की संज्ञा दे डालते. धीरे-धीरे उन्होंने शहरी कल्चर को अपना ही लिया और अपनी भाषा और संस्कृति की मिठास को अपने मन में छुपा लिया. करते भी क्या और भला उनके पास चारा भी क्या था. लेकिन इन दिनों माज़रा जरा उलटता हुआ ऩजर आ रहा है. आजकल वह अपनी क्षेत्रीय बोली बड़े गर्व से बोलते हैं और लोग उन्हें देहाती भी नहीं समझते. क्षेत्रीय भाषाओं को फ्रेंडली बनाया है हमारे इंटरटेनमेंट मीडिया ने. इसी ने तिवारी जी के अन्दर कॉन्फिडेंस भी जगाया. बहुचर्चित टीवी सीरियल प्रतिज्ञा में जब कृष्णा भैया ठेठ अन्दाज़ में बोलते हैं तो तिवारी जी का चेहरा देखने लायक होता है. खुशी और गर्व का मिलाजुला जो भाव उनके चेहरे पर निखरता है, वह प्राइसलेस होता है. पिछले कुछ वषरें से हमारी इंटरटेनमेंट इंडस्ट्री ने भी लोगों के मन में दबी क्षेत्रीयता की प्यास को और मिठास को समझा. इसीलिए उसकी ओर हाथ बढ़ाया है. इन दिनों क्षेत्रीयता का जादू सबके सर चढ़कर बोल रहा है. उसमें भी खास बात यह है कि क्षेत्रीय भाषा को लोगों ने भी खूब प्यार से अपनाया है. कहीं किसी सीरियल में गुजराती का राज है तो कहीं राजस्थानी का और जी कहीं अपनी बिहारी का जलवा बरकरार है. लोगों ने भाषा और संस्कृति के इस विस्तार को जिस तरह से अपनाया है, उसे देखकर यही लगता है कि भारत जैसे विविध संस्कृति वाले देश में हर कोई अपनी संस्कृति के साथ-साथ दूसरों की संस्कृतियों को भी अपनाने को तैयार बैठा है, न जाने कैसे राजनीति में ही इन चीजों की मिठास, कड़वाहट में बदल जाती है. खैर, लौटते हैं अपनी इंटरटेनमेंट इंडस्ट्री की ओर. क्षेत्रीय भाषाओं को लेकर अब झिझक नहीं गर्व महसूस होता है लोगों को. तिवारी जी का छोटा बेटा राहुल इसका बड़ा उदाहरण है. अब वह बड़े गर्व से अपनी बोली में बात करता है और अपने दोस्तों को भी सिखाता है. जो पहले शायद कभी भी इस क्षेत्रीय बोली से परिचित न हो पाते अगर टीवी सीरियल्स ने इसे लोकप्रिय न बनाया होता. वैसे भी क्षेत्रीय बोलियों, भाषाएं और कल्चर देश को अखण्डता के सूत्र में जोड़े रखने का एक कारगर माध्यम है. इस तरह के सीरियल्स की बात करें तो लिस्ट काफी लम्बी है. हरियाणवी ठेठ भाषा में बोलती अम्मा जी, राजस्थानी बोली और परिवेश पर आधारित बालिका वधू या मराठी कल्चर को संजोये हुए सीरियल पवित्र रिश्ता जैसे कई नाम हैं फिल्मों की ओर देखें तो पीपली लाइव एक सीधा उदाहरण है. खाट पे लेटी अम्मा का पत्रकार से बीड़ी मांगने के दौरान ठेठ भाषा का संवाद सिनेमा हॉल को तालियों की गड़गड़ाहट से भर देने के लिए काफी था. फिल्मों में ही नहीं अब तो विज्ञापनों में भी क्षेत्रीय भाषा की मिठास घुलने लगी है. क्षेत्रीय भाषा और कल्चर को अपनों तक पहुंचाने का सफल माध्यम बनती जा रही हमारी इंटरटेनमेंट इंडस्ट्री में यह बदलाव चाहे जिस कारण से हुआ हो पर यह तो तय है कि फोक कल्चर का एक बड़ा दर्शक वर्ग है. जिसमें उस क्षेत्र विशेष में जुड़े लोगों के साथ देश के अन्य क्षेत्रों के लोग भी शामिल हैं जो इस तरह के सीरियल्स पसन्द करते हैं. उनकी बढ़ती टीआरपी इस बात का पुरजोर समर्थन करती है. अभी पिछले दिनों एक कंपनी के विज्ञापन में यह बाद स्पष्ट तौर पर दिखाई गई. विज्ञापन की बॉडी लाइन है कि जहां भी जायें, अपने चैनल्स का मजा पायें, यह एक बड़ा कदम है क्षेत्रीयता के मार्केट पर कब्जा करने का. खैर, कारण चाहे जो भी हो यह बात तो निश्चित है जिस प्रकार क्षेत्रीय भाषाओं और कल्चर की लोकप्रियता हमारे टीवी चैनल्स और फिल्मों में बढ़ रही है, वह दिन दूर नहीं जब हमारी क्षेत्रीय बोलियां, भाषाएं और फोक कल्चर नई ऊंचाई पर पहुंच जायेंगे.

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